इंडोनेशिया की रामकथा: रामायण का कावीन



इंडोनेशिया के नब्बे प्रतिशत निवासी मुसलमान हैं, फिर भी उनकी संस्कृति पर रामायण की गहरी छाप है। फादर कामिल बुल्के १९८२ ई. में लिखते हैं, 'पैंतीस वर्ष पहले मेरे एक मित्र ने जावा के किसी गाँव में एक मुस्लिम शिक्षक को रामायण पढ़ते देखकर पूछा था कि आप रामायण क्यों पढ़ते है? उत्तर मिला, 'मैं और अच्छा मनुष्य बनने के लिए रामायण पढ़ता हूँ।'

रामकथा पर आधारित जावा की प्राचीनतम कृति 'रामायण काकावीन' है। यह नौवीं शताब्दी की रचना है। परंपरानुसार इसके रचनाकार योगीश्वर हैं। यहाँ की एक प्राचीन रचना 'उत्तरकांड' है जिसकी रचना गद्य में हुई है। चरित रामायण अथवा कवि जानकी में रामायण के प्रथम छह कांडों की कथा के साथ व्याकरण के उदाहरण भी दिये गये हैं। बाली द्वीप के संस्कृत साहित्य में अनुष्ठभ छंद में ५० श्लोकों की संक्षिप्त रामकथा है। रामकथा पर आधारित परवर्ती रचनाओं में 'सेरतकांड', 'रामकेलिंग' और 'सेरी राम' का नाम उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त ग्यारहवीं शताब्दी की रचना 'सुमनसांतक' में इंदुमती का जन्म, अज का विवाह और दशरथ की जन्मकथा का वर्णन हुआ है। चौदहवीं शताब्दी की रचना अर्जुन विजय की कथावस्तु का आधार अर्जुन सहस्त्रवाहु द्वारा रावण की पराजय है।

रामायण काकावीन की रचना कावी भाषा में हुई है। यह जावा की प्राचीन शास्रीय भाषा है। काकावीन का अर्थ महाकाव्य है। कावी भाषा में कई महाकाव्यों का सृजन हुआ है।उनमें रामायण काकावीन का स्थान सर्वोपरि है। रामायण का कावीन छब्बीस अध्यायों में विभक्त एक विशाल ग्रंथ है, जिसमें महाराज दशरथ को विश्वरंजन की संज्ञा से विभूषित किया गया है और उन्हें शैव मतावलंबी कहा गया है। इस रचना का आरंभ राम जन्म से होता है। विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण के प्रस्थान के समय अष्टनेम ॠषि उनकी मंगल कामना करते हैं और दशरथ के राज प्रसाद में हिंदेशिया का वाद्य यंत्र गामलान बजने लगता है।

द्वितीय अध्याय का आरंभ बसंत वर्णन से हुआ है। यहाँ भी इंडोनेशायाई परिवेश दर्शनीय है। तुंजुंग के फूल खिले हुए हैं। सूर्य की किरणें सरोवर के जल पर बिखरी हुई हैं। उसका सिंदूरी वर्ण लाल-लाल लक्षा की तरहा सुशोभित है। लगता है मानो सूर्य की किरणे पिघल-पिघल कर स्वच्छ सरोवर के जल में परिवर्तित हो गयी है।

विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण के यात्रा-क्रम में हिंदेशिया की प्रकृति का भव्य चित्रण हुआ है

विश्वामित्र आश्रम में दोनों राजकुमारों को अस्र-शस्र एवं ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जाती है और ताड़का वध के बाद विष्णु का अवतार मान कर उनकी वंदना की जाती है। इस महाकाव्य में मिथिला गमन, धनुभर्ंग और विवाह का वर्णन अत्यंत संक्षिप्त है। तीनों प्रसंगों का वर्णन मात्र तेरह पदों में हुआ है। इसके अनुसार देवी सीता का जिस समय जन्म हुआ था, उस समय पहले से ही उनके हाथ में एक धनुष था। वह भगवान शिव का धनुष था और उसी से त्रिपुर राक्षस का संहार हुआ था।

रामायण काकावीन में परशुराम का आगमन विवाह के बाद अयोध्या लौटने के समय वन प्रदेश में होता है। उनका शरीर ताल वृक्ष के समान लंबा है। वे धनुभर्ंग की चर्चा किये बिना उन्हें अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए ललकारते हैं, किंतु राम के प्रभाव से वे परास्त होकर लौट जाते हैं। इस महाकाव्य में श्री राम के अतिरिक्त उनके अनेय किसी भाई के विवाह की चर्चा नहीं हुई है।

अयोध्याकांड की घटनाओं की गति इस रचना में बहुत तीव्र है। राम राज्यभिषेक की तैयारी, कैकेयी कोप, राम वनवास, राजा दशरथ की मृत्यु और भरत के अयोध्या आगमन की घटनाएँ यहाँ पलक झपकते ही समाप्त हो जाती हैं। अयोध्या लौटने पर जब भरत को जानकारी मिलती है कि उनकी माता कैकेयी के कारण भीषण परिस्थिति उत्पन्न हुई, तब वे उस पर कुपित होते है। फिर, वे नागरिकों और गुरुजनों को बुलाकर चंद्रोदय के पूर्व पिता का श्राद्ध करने के उपरांत सदल-बल श्री राम की खोज में वन-प्रस्थान करते हैं।

मार्ग में गंगा-यमुना के संगम पर भारद्वाज आश्रम में उनका भव्य स्वागत होता है। दूसरे दिन एक पवित्र सरोवर मिलता है जिनका नाम मंदाकिनी है। उसी स्थल पर उन्हें एक नग्न तपस्वी से भेंट होती है जिनसे उन्हें श्रीराम के निवास स्थान की पूरी जानकारी मिलती है। यात्रा के अंतिम चरण में उनकी भेंट राम, लक्ष्मण और सीता से होती है। अयोध्याकांड की घटनाओं के बीच मंथरा और निषाद राज की अनुपस्थिति निश्चय ही बहुत खटकती है।

अयोध्या लौटने के पूर्व श्रीराम भरत को अपनी चरण पादुका देते हैं और उन्हें शासन संचालन और लोक कल्याण से संबद्ध विधि-निषेधपूर्ण लंबा उपदेश देते हैं। वह किसी भी देश अथवा कान के लिए प्रासंगिक है। श्रीराम के उपदेश का सारांश यह है कि राजा की योग्यता और शक्ति की गरिमा प्रजा के कष्टों का निवारण कर उनका प्रेमपूर्वक पालन करने में निहित है।

भरत की अयोध्या वापसी के बाद श्रीराम कुछ समय महर्षि अत्रि के सत्संग में बिता कर दंडक वन की ओर प्रस्थान करते हैं। मार्ग में विराध वध के बाद महर्षि सरभंग से उनकी भेंट होती है। वे योगबल से अपने शरीर को भ कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। उन्हीं के परामर्श से वे सुतीक्ष्ण के आश्रम के निकट पर्णकुटी बना कर रहने लगते हैं और तपस्वियों की रक्षा में संलग्न रहते हैं।

रामायण का कावीन में शूपंणखा प्रकरण से सीता हरण तक की घटनाओं का वर्णन वाल्मीकीय परंपरा के अनुसार हुआ है। ॠष्यसूक पर्वत की ओर जाने के क्रम में श्रीराम की भेंट तपस्विनी शबरी से होती है। उसने पेड़ की छाल से अपने शरीर को ढक रखा है। उसका रंग काला है। वह श्रीराम को मधु और फल खाने के लिए देती है। वह कहती है कि रुद्रदेव ने जब उसको शाप दिया था, उस समय वे लिंग रुप में थे। विष्णु उस समय मधुपायी की अवस्था में थे। उन्होंने बाराह रुप धारण किया हुआ था। उसके बाद उन्होंने देवी पृथ्वी से विवाह कर लिया। फिर वे बाराह रुप में प्रकट हुए और एक पर्वत पर जाकर मोतियों की माला खाने लगे। तदुपरांत उस बाराह की मृत्यु हो गयी। उसके मृत शरीर को हम लोगों ने खा लिया। इसी कारण हम सबका शरीर नीलवर्ण का हो गया।१ श्रीराम के स्पर्श से वह शाप मुक्त हो गयी। सीता की प्राप्ति हेतु वह उन्हें सुग्रीव से मित्रता करने की सलाह देकर लुप्त हो गयी।

सुग्रीव मिलन और बालिवध की घटनाओं का वर्णन वाल्मीकीय परंपरा के अनुसार हुआ है। सातवें अध्याय में वर्षा ॠतु का विषद वर्णन हुआ है जिसपर स्थानीय परिवेश का प्रभाव स्पष्ट रुप से परिलक्षित होता है। श्वेत वर्ण के कूनतूल पक्षी धान के खेतों में वापस लौट आये हैं। खद्योतों की चमक मशाल की तरह प्रकाश विखेरती नज़र आती है। चूचूर पक्षी का स्वर वेदना को जागृत करता है। यही स्थिति वेयो पक्षी की है। वर्षा वर्णन के उपरांत शरद ॠतु का चित्रण हुआ है।

सीतान्वेषण और राम-रावण युद्ध का इस महाकाव्य में बहुत विस्तृत वर्णन हुआ है। रावण वध और विभीषण के राज्याभिषेक के बाद श्रीराम 'मेघदूत' के यक्ष की तरह हनुमान से काले-काले बादलों को भेदकर आकाश मार्ग से अयोध्या जाने का आग्रह करते हैं। वे कहते हैं कि समुद्र पार करने पर उन्हें महेंद्र पर्वत के दर्शन होंगे। उत्तर दिशा की ओर जाते हुए वे मलयगिरि का अवलोकन करेंगे। उसका सौंदर्य मनोहारी एवं चित्ताकर्षक होगा उसके निकट ही उत्तर दिशा में विंध्याचल है। वहाँ किष्किंधा पर्वतमाला का सौंदर्य दर्शनीय है। मार्ग में सघन और भयानक दंडक वन मिलेगा जिसमें लक्ष्मण के साथ उन्होंने प्रवेश किया था। घने वृक्ष की शाखाओं में लक्ष्मण की गर्दन बार-बार उलझ जाती थी। इसी प्रकार चित्रकूट से अयोध्या तक के सारे घटना स्थलों तथा नदियों का विस्तृत वर्णन हुआ है। यक्ष की तरह वे माता कौशल्या और भरत से लंका विजय के साथ अपने आगमन का संदेश देने के लिए कहते हैं।

राम राज्योभिषेक के बाद महाकवि रामकथा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हैं। उनकी मान्यता है कि राम चरित्र जीवन की संपूर्णता का प्रतीक है। राम के महान आदर्श का अनुकरण जनजीवन में हो, इसी उद्देश्य से इस महाकाव्य की रचना की गयी है। राम के जनानुराग की चरण धूलि के रुप में यह कथा संसार की महानतम पवित्र कथाओं में एक है। इस रचना के अंत में महाकवि योगीश्वर अपनी विनम्रता का परिचय देते हुए उत्तम विचार वाले सभी विद्वानों से क्षमा याचना करते हैं।

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